वेदों के रचनाकाल का निर्णय करना अत्यन्त कठिन कार्य है । प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव के कारण मनीषियों के मध्य इस विषय में पर्याप्त मतभेद है । काल निर्णय करने वाले विद्वानों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है ।
प्रथम वर्ग में वे सनातनी वैदिक और वेदभक्त आते हैं जिनके लिये वेद अनादि‚ अपौरुषेय व नित्य हैं । वे इसके विषय में विचार ही व्यर्थ समझते हैं । उनके मन का कुतूहल यह जानकर ही समाप्त हो जाता है कि जिस दिन सृष्टि का आरम्भ हुआ तभी ऋषियों के हृदयों में वेदों का भी आविर्भाव हो गया ।
दूसरी श्रेणी उन पाश्चात्य विद्वानों की है जिन्होंने वेदों के कालनिर्णय की दृष्टि से कुछ पूर्वाग्रह पाल रखे हैं । वस्तुतः इसाई मत के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि पिछले आठ हजार वर्षों में हुई‚ इसलियेवे खींच–तानकर वेदों का रचनाकाल आज से ४–५ हजार वर्ष पूर्व ही निश्चित कर देना चाहते हैं ।
तीसरा वर्ग अनुसन्धानप्रेमी है‚ ये शोध के समय आस्तिकता की सीमा को बाधक नहीं मानते । वे अनादिता के पक्ष में इसलिए नहीं हैं क्योंकि इससे अध्ययन परम्परा प्रशस्त नहीं होती । इन विद्वानों ने ज्योतिष और भूगर्भ शास्त्र इत्यादि की अधुनातन खोजों के आधार पर वेद के रचनाकाल की समस्या को सुलघाने का प्रयत्न किया है ।
वेद के रचनाकाल के विषय में प्रचलित मुख्य मतों का परिचय इस प्रकार है :
लोकमान्य तिलक का मत :
तिलक जी ने ज्योतिष को आधार मान कर वेद का प्रारम्भिक काल ६००० ई.पू. से ४००० ई.पू. माना है । उन्होंने यह तिथि विभिन्न नक्षत्रों के वसन्त सम्पात के आधार पर निश्चित किया तथा वेदकाल को चार भागों में बाँटा ।
क. अदिति काल – ६००० से ४००० ई.पू. । इस काल में निविद मन्त्रों की रचना स्वीकार की ।
ख. मृगशिरा काल – ४००० ई.पू. से २५०० ई.पू. । ऋग्वेद के अधिकांश मन्त्रों की रचना स्वीकार की ।
ग. कृत्तिका काल – २५०० ई.पू. से १४०० ई.पू. । चारों वेदसंहिताओं का संकलन और तैतत्रिJीय संहिता तथा कुछ ब्राह्मणों की रचना का युग माना । वेदांग ज्योतिष की रचना का काल भी इसे ही माना ।
घ. अन्तिम काल – १४०० ई.पू. से ५०० ई.पू. । इसे श्रौतसूत्रों‚ गृह्यसूत्रों तथा विभिन्न दर्शनसूत्रों की रचना का काल माना ।
तिलक की गणना प्रकिया – ऋतुओं का आगमन सूर्य संक्रमण पर आधृत है । ऋतुएँ निरन्तर पीछे हट रही हैं । पहले वर्ष का आरम्भ वसन्त से होता था । उस समय वसन्तसम्पात क्रमशः उत्तराभाद्रपद‚ रेवती‚ अश्विनी‚ भरणी‚ कृत्तिका‚ रोहिणी‚ मृगशिरा आदि नक्षत्रों में होता था आज वह मीन संक्रान्ति से आरम्भ होता है । यह संक्रान्ति पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के चतुर्थ चरण से आरम्भ होती है । धीरे–धीरे नक्षत्र एक के बाद एक के क्रम में पीछे हटे हैं । नक्षत्र २७ हैं और सूर्य का संक्रमण वृत्त या राशिचक्र ३६० डिग्री का है । अतः प्रत्येक नक्षत्र की दूरी ३६०/२७=१३ डिग्री है । प्रत्येक नक्षत्र समयानुसार अपने स्थान से हटता रहता है । एक नक्षत्र को एक डिग्री पीछे हटने में ७२ वर्ष लगते हैं । इस प्रकार एक नक्षत्र को १३ डिग्री पीछे हटने में अर्थात् दूसरे नक्षत्र के स्थान पर पहुँचने में ९७२ वर्ष (७२x१३) लगते हैं । अतः लगभग १५०० वर्ष पूर्व कृत्तिका में वसन्त सम्पात हुआ होगा ।
लोकमान्य तिलक को ऋग्वेद में कुछ ऐसे मन्त्र मिले जिनसे मृगशिरा नक्षत्र में वसन्त सम्पात होने के संकेत प्राप्त होते हैं । यह वसन्त सम्पात और आगे पुनर्वसु तक जाता है । मृगशिरा में कृत्तिका दो नक्षत्र पहले है और पुनर्वसु के चार नक्षत्र पहले । अतः मृगशिरा में वसन्तसम्पात का समय कृत्तिका वाले समय से १९४४ (९६२x२) वर्ष पूर्व होगा । फलतः मृगशिरा में ४५०० वर्ष पूर्व अर्थात् आज से ६५०० वर्ष पूर्व हुई होगी । यदि पुनर्वसु में वसन्त सम्पात मानें तो लगभग २०० वर्ष और बढ़ जाएँगे ।
टिप्पणी : लोकमान्य तिलक जी के प्रयत्नों की सराहना अवश्य ही होनी चाहिए किन्तु उनका मत भी प्रायः अनुमान पर अधिक है‚ तथ्य पर कम । ज्योतिष में ग्रह–नक्षत्रादि का मार्ग ३६० अंशों का है जिसपर वे पुनः–पुनः लाखों वर्षों से चलते आ रहे हैं । और अबतक पता अपने पथ पर पता नहीं कितनी आवृत्ति कर चुके होंगे । इस तरह से ऋग्वेद में वर्णित उक्त सम्पात उक्त नक्षत्रों में पता नहीं कितनी बार पड़ा होगा । तिलक जी ने सम्पात व नक्षत्र के मेल का सबसे अन्तिम समय स्वीकार किया जिसे मान लेने का तात्पर्य यह होगा कि वस्तुतः मनुष्य जीवन की सभ्यता का आरम्भ कुछ हजार सालों पहले ही शुरू हुआ । यह विचारधारा उन पाश्चात्य विद्वानों की विचारधारा से प्रेरित है जो मानवजीवन का प्रारम्भ मात्र आठ या दस हजार वर्ष पहले से मानती है । हाल ही में हुई खुदाइयों में सिनौली की खुदाई में मिली वस्तुएँ उन पाश्चात्य विचारकों के दुराग्रही विचारों की भी पोल खोलते हैं ।
शङ्कर बालकृष्ण दीक्षित का मत – दीक्षित जी ने शतपथ ब्राह्मण का एक अंश उद्धृत किया है जिससे ज्ञात होता है कि उक्त ब्राह्मण के रचनाकाल में कृत्तिकाओं का उदय ठीक पूर्वीय बिन्दु पर होता था । इससे सूचना मिलती है कि कृत्तिका नक्षत्र अपने स्थान से ४–३/४ नक्षत्र (भरणी‚ अश्विनी‚ रेवती और उत्तरा भाद्रपद होते हुए) पीछे हट चुका है‚ अतः कृत्तिका नक्षत्र में वसन्त सम्पात सम्भवतः २५०० ई.पू. हुआ होगा । वही शतपथ ब्राह्मण का रचना काल है । चारों वेदों की रचना में एक हजार वर्ष और लगे होंगे । इस प्रकार ३५०० ई.पू. में वेदों की रचना आरम्भ हुई होगी ।
टिप्पणी : दीक्षित जी का मत भी तिलक जी के ही मत का अनुसरण करता दिखाई देता है । सम्भवतः इन विद्वानों की दृष्टि में मानव जीवन का कुल काल मात्र ५००० वर्ष का ही हो । आश्चर्य यह है कि भारतीय ग्रन्थों विशेषकर ज्योतिषीय ग्रन्थों में काल विभाजन की वैज्ञानिकता और प्राचीनता को देखकर भी इनका दृष्टिकोण पाश्चात्यों के प्रति ही श्रद्धान्वित रहा ।
डॉ. अविनाश चन्द्रदास का मत – डॉ. दास ने भूगर्भशास्त्र और भूगोलगत साक्ष्यों के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल २५००० ई.पू. निश्चित किया है । कुछ प्रमुख तथ्य ये हैं –
क. ऋग्वेद में सरस्वती नदी के समुद्र में मिलने का उल्लेख है – 'एकाचेतत् सरस्वती नदीनाम् शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात् । ऋग्वेद ७.९५.२ ।।
ख. यह समुद्र राजस्थान में था । किसी बड़े भूकम्प के कारण समुद्र और सरस्वती दोनों विलीन हो गये ।
ग. आर्यों के निवासस्थान सप्तसैन्धव प्रदेश के चारों ओर चार समुद्र थे । पूर्वी समुद्र वहाँ था जहाँ आज उत्तरप्रदेश और बिहार हैं; पश्चिमी समुद्र आज भी वहीं है‚ उत्तरी समुद्र उत्तर में था । आज का कैस्पियन समुद्र उसी का अवशेष है । दक्षिणी समुद्र राजस्थान में था ।
घ. गंगा प्रदेश हिमालय की तलहटी तथा असम के पर्वतीय प्रदेश समुद्र के अन्दर थे ।
ङ. भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार यह स्थिति ५०००० वर्ष से २५००० वर्ष ईसापूर्व थी ।
अभी तक किसी भूगर्भशास्त्री‚ वैज्ञानिक या भूगोलवेत्ता ने डॉ. दास के मत को चुनौती देने का साहस नहीं किया है । अतः डॉ. दास का मत सत्य के सबसे अधिक निकट जान पड़ता है । हालाँकि यह मत भी अनुमान पर ही आधारित है । सम्भव है वेद इस काल से भी हजारों अथवा लाखों वर्ष प्राचीन हों । किन्तु यह वेदों के निर्माण की अन्तिम सीमा तो मानी ही जा सकती है ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का मत – आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों को परमात्मा से उत्पन्न मानते हुए इनका काल सृष्टि का प्रारम्भ माना है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार वर्तमान सृष्टि का प्रारम्भ प्रायः १९५५८८५०९६ वर्ष पहले हुआ । यही वेदों की उत्पत्ति का काल है ।
पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने ज्योतिष के आधार पर वेद का रचनाकाल लगभग ३००००० (तीन लाख वर्ष) ई.पू. माना है ।
ईशावास्य उपनिषद् में आए 'असुर्या' शब्द को डॉ. भण्डारकर ने वर्तमान
असीरिया का समानार्थक माना है । असीरिया के निवासी वेदों में उल्लिखित असुर
हैं । लगभग २५०० ई.पू. में ये भारत में प्रविष्ट हुए । इसी आधार पर ऋग्वेद
का रचनाकाल ६००० ई.पू. है ऐसा डॉ. भण्डारकर का मत है ।
मैक्समूलर का मत :
बुद्ध
के आविर्भाव को आधार मानकर प्रो. मैक्समूलन ने वेदरचना का काल १२०० ई.पू.
माना । उसने सम्पूर्ण वैदिक काल को चार भागों में बाँटा ।
क. १२०० ई.पू. से १००० ई.पू. – छन्दकाल तथा प्रकीर्ण मन्त्रों का रचना काल । उसने इसी काल को ऋग्वेद की रचना का काल माना है ।
ख. १००० ई.पू. से ८०० ई.पू. – मन्त्रकाल । इस काल में मन्त्रों का संहिताओं के रूप संकलन माना है ।
ग. ८०० ई.पू. से ६०० ई.पू. – ब्राह्मण काल । ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना का काल माना है ।
घ. ६०० ई.पू. से ४०० ई.पू. – सूत्रकाल । श्रौतसूत्रों और गृह्यसूत्रों की रचना को इन्हीं २०० वर्षों में स्वीकार किया ।
यह
मत कुछ समय तक प्रचलित रहा किन्तु बाद में स्वयं मैक्समूलर ने ही इसे
अमान्य कर दिया । बोघाजकोई के शिलालेख की प्राप्ति के बाद तो यह बिलकुल ही
निरस्त हो गया ।
वास्तव में मैक्समूलर ने बिना किसी शोध व प्रमाण
के केवल मनगढन्त रूप से ही वेदों के काल का निर्धारण किया था । यह
वर्गीकरण कितना अवैज्ञानिक और दुराग्रहयुक्त था इसका पता मैक्समूलर की अपने
परिवार को लिखे पत्रों से ज्ञात होता है जिसमें उसने भारतीय इतिहास को बदल
देने की बात कही है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी मैक्समूलर जैसों के
मत पढ़ाये जात हैं ।
विण्टरनित्स ने वेदों की रचना का काल २५०० ई.पू. से ५०० ई.पू. तक माना है ।
मैक्डॉनल ने ऋग्वेद की रचना का काल १३०० ई.पू. माना है । उसके अनुसार इसी समय भारतीय और ईरानी सभ्यताएँ अलग हुईं ।
याकोबी का मत – शर्मण्यदेशीय वेदज्ञ याकोबी का आधार भी ज्योतिषशास्त्र ही
है । उसने गृह्यसूत्रों में वैवाहिक संस्कार प्रसंग में आये ध्रुवदर्शन
कृत्य पर विचार करके अपना मत प्रकट किया कि लगभग ४५०० ई.पू. ऋग्वेद की रचना
हुई होगी ।
इतिहासज्ञ एच.जी.वेल्स ने अपनी पुस्तक आउटलाइन्स ऑफ वर्ड हिस्ट्री में २५००–५००० वर्ष ई.पू. के विश्व की रूपरेखा प्रस्तुत की है । इसी आधार पर अमलनरेकर ने ऋग्वेद की रचना का काल ६६०० से ७५०० वर्ष पहले माना है ।
उपर्युक्त मतों की बड़ी संख्या से स्पष्ट है कि वेदों की रचना का काल अभी तक अनिर्णीत ही है । डॉ. दास के अतिरिक्त इसपर जितने लोगों ने काम किया प्रायः उन्होंने अनुमान व कपोलकल्पनाओं का ही सहारा लिया है । पाश्चात्य विद्वानों का दुराग्रह तो स्पष्ट ही दिखाई देता है । उनका वश चले तो वे वेदों को बौद्धसाहित्य के बाद का बता दें किन्तु वे भी वेदों की सर्वप्राचीनता को स्वीकार करने को बाध्य हैं इसीलिये प्रयत्नतः उसके काल को जितना पीछे खींच कर ला सकते हैं लाते हैं । मजेदार बात यह भी है कि जिन विद्वानों ने ज्योतिष के आधार पर कालनिर्णय का प्रयत्न किया वे ज्योतिष में ही लिखे भारतीय समय को कल्पित मानते हैं । इससे हास्यास्पद और कुछ नहीं हो सकता । इधर कुछ समय से भारतीय भूगर्भशास्त्रियों ने हरियाणा के सिलौनी क्षेत्र में महाभारत कालीन साक्ष्य खोजे हैं जिनसे भारतीय ग्रन्थों की प्रामाणिकता बढ गई है । भविष्य में निश्चय ही वेदों के रचनाकाल का निर्णय हो सकेगा किन्तु आशा है यह दुराग्रहपूर्ण नहीं अपितु साक्ष्यों पर आधारित होगा ।
इति...