इस विषय में प्रायः सभी एकमत हैं कि प्रारम्भ में सभी वेदमन्त्र एकसाथ ही थे । इन्हें मूलवेद कहा जा सकता है । जरमन भाषा में इसके लिये UR-VEDA शब्द प्रचलित है । दुर्गाचार्य ने निरुक्त वृत्ति में कहा है कि वेदव्यास ने एकस्थ वेद को अध्ययन की दृष्टि से कठिन समझकर उसे अलग-अलग संहिताओं में संकलित कर दिया : 'वेदं तावदेकं सन्तम् अतिमहत्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषुः' निरुक्तवृत्ति १.२० ।।
इस संहिताकरण में ऋषि‚ देवता‚ विनियोग प्रभृति विभिन्न तत्वों की नियामकता रही किन्तु यागात्मक प्रयोजन सबसे ऊपर रहा है ।
ऋग्वेद संहिता
वैदिक साहित्य में ऋक्संहिता के पाठ को प्रधानता प्राप्त है‚ जैसा कि छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है - 'ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थम्' छान्दोग्य उपनिषद् (१.१.५) । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि जो कुछ यजुषों अथवा सामों से किया जाता है वह ऋचाओं की अपेक्षा शिथिल है - 'यद् वैयज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते शिथिलं तद् यद् ऋचा तद् दृढम्' (तै.सं. ६.५.१०.३) ।
ऋग्वेद की शाखाएँ
अध्ययन के प्रसाद के कारण कालान्तर से एक ही मन्त्रसंहिता की अनेक शाखाएँ
हो गईं । ये वस्तुतः मूल संहिताओं से अभिन्न ही थीं मात्र इनमें कुछ
मन्त्रों का न्यूनाधिक्य‚ पौर्वापर्य‚ पाठव्यतिक्रम‚ उच्चारणभेद और
अनुष्ठानविधि का पार्थक्य रहता था । जैसा कि पं. सत्यव्रत सामश्रमी का कथन है
'वेदशाखाभेदो न मन्वाद्यध्यायभेदतुल्यः‚ प्रत्युत भिन्नकाललिखितानां
भिन्नदेशीयानामेकग्रन्थानामपि बहुतरादर्शपुस्तकानां यथाभवत्येव पाठादिभेदः
प्रायस्तथैव (वेदत्रयी परिचय) ।
पतञ्जलि के व्याकरणमहाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की प्रायः २१ शाखाएँ थीं - 'एकविंशतिधा बाह्वृच्यम् (पस्पशाह्निक) । इनमें से चरणव्यूह में उल्लिखित ये पाँच शाखाएँ प्रमुख मानी जाती हैं - १. शाकल‚ २. बाष्कल‚ ३. आश्वलायनी‚ ४. शांखायनी और ५. माण्डूकायनी ।
सम्प्रति ऋग्वेद की शाकल शाखा ही उपलब्ध है
। ऐसी मान्यता है कि इसमें ही अन्य शाखाओं के जो अधिक मन्त्र थे सम्मिलित
हैं‚ विशेष रूप से बाष्कल शाखा के । ऐसे बहुत से मन्त्र अष्टम मण्डल में
हैं जो उसमें समाहित न हो सकने के कारण खिलों के अन्तर्गत हैं ।
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार ऋग्वेद संहिता का अध्यापन महर्षि वेदव्यास ने पहली बार अपने शिष्य पैल के सम्मुख किया था - 'तत्रर्ग्वेदधरः पैलः' ।
ऋग्वेद की व्यवस्था और विषयविन्यास
ऋग्वेद का अभिप्राय है वह वेद जिसमें ऋचाओं की प्रधानता हो । ऋचा से तात्पर्य पद्यात्मक मन्त्रों से है - 'तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था' । इस तरह ऋग्वेद ऋचाओं की संकलित निधि है । इसका विभाजन अष्टक क्रम और मण्डल क्रम से दो प्रकार किया गया है ।
अष्टक क्रम –
सम्पूर्ण ऋग्वेद का विभाजन आठ अष्टकों में किया गया है । प्रत्येक अष्टक
में आठ अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में कुछ वर्ग हैं । हर वर्ग में
पाँच ऋचाओं का अनुपात है । इस तरह कुल अध्यायों की संख्या ६४ और वर्गों की संख्या २००६ है ।
मण्डल क्रम –
मण्डलक्रम का अवान्तर विभाजन अनुवाक् और सूक्तों में है । सम्पूर्ण ऋग्वेद
दश मण्डलों में विभाजित है । मण्डलों की इस संख्या के कारण ही ऋग्वेद को 'दाशतयी'
भी कहा जाता है । प्रत्येक मण्डल कुछ अनुवाकों में विभक्त है । हर अनुवाक्
के अन्तर्गत कुछ सूक्त हैं और प्रत्येक सूक्त में अनुपाततः १० ऋचाएँ हैं ।
ऋग्वेद में कुल ८५ अनुवाक् व एक हजार सत्रह सूक्त हैं । अपने ऐतिहासिक आधार के कारण आधुनिक विद्वानों में मण्डल क्रम विशेष लोकप्रिय है । शौनककृत अनुक्रमणी के अनुसार ऋचाओं की पूर्ण संख्या १०५८०–१/४ है :
ऋचां दशसहस्राणि ऋचां पञ्चशतानि च
ऋचामशीतिः पादश्च पारणं संप्रकीर्तितम् ।।
आधुनिक गणना के कारण ऋग्वेद में कुल १०४१७ ऋचाएँ ही हैं । इसमें बालखिल्य सूक्त भी सम्मिलित हैं । प्रक्षेप को बचाने के लिये अनुक्रमणीकारों ने ऋक्संहिता की शब्दसंख्या भी गिन रखी है । तदनुसार ऋचाओं में कुल एक लाख तिरपन हजार आठ सौ छब्बीस शब्द आये हैं :
शाकल्यदृष्टे पदलक्षमेकं सार्धं च वेदे त्रिसहस्रयुक्तम्
शतानि चाष्टौ दशकेद्वयं च पदानि षट् चेति हि चर्चितानि ।।
वंशमण्डल (गोत्रमण्डल)
ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक को गोत्र अथवा वंश मण्डल कहते हैं क्योंकि इनमें समाविष्ट मन्त्रों का साक्षात्कार किसी एक ऋषि अथवा उसके वंशजों ने ही किया है । तदनुसार दूसरे
मण्डल के द्रष्टा ऋषि गृत्समद‚ तीसरे के विश्वामित्र‚ चतुर्थ के वामदेव‚
पंचम के अत्रि‚ षष्ठ के भारद्वाज और सप्तम के वसिष्ठ व उनके सगोत्रीय जन हैं ।
अन्य मण्डल
प्रथम और दशम मण्डल की सूक्त संख्या १९१
है । कुछ विद्वान इन मण्डलों को बाकी की अपेक्षा अर्वाचीन मानते हैं ।
हालाँकि इसके प्रमाणस्वरूप उनके पास कोई विशेष तथ्य व तर्क नहीं हैं । प्रथम मण्डल के ऋषियों को कात्यायन ने शतर्चिन (सौ ऋचाओं वाले) कहा है । इस मण्डल के प्रथम ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र
हैं । दशम मण्डल में विषय की दृष्टि से कुछ भिन्नता है । अष्टम मण्डल के
ऋषि कण्व तथा अंगिरा वंश के हैं । नवम् मण्डल में सोमविषयक समस्त मन्त्रों
को संगृहीत किया गया है इसीलिये उसे 'पवमान' मण्डल भी कहा जाता है । ऋषियों की दृष्टि से इस मण्डल में विभिन्न ऋषि हैं ।
क्रमशः....