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अष्टाध्यायी : सामान्य परिचय
SANSKRITJAGAT 05/06/2021 | 01:53 PM
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अष्टाध्यायी महर्षि पाणिनि की सर्वोत्कृत्ष्ट रचना है । यह लौकिक संस्कृत का सर्वोत्कृष्ट व्याकरणग्रन्थ है । यह सूत्र पद्धति में लिखा गया है । लौकिक व्याकरण के अतिरिक्त इसमें वैदिक व्याकरण के सामान्य नियम भी दिये गये हैं । वेदों की हर शाखा के विशेष नियम अलग से उनके प्रातिशाख्यों में प्राप्त होते हैं । अष्टाध्यायी के सूत्र पद्धति में लिखे जाने के कारण महर्षि पाणिनि को सूत्रकार भी कहा जाता है । इनके लिखे सूत्र इतने सुगठित हैं कि इनमें एक अक्षर का भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता । प्रायः २५०० वर्ष बीत जाने पर भी अष्टाध्यायी के सूत्रों में कोई भी पाठभेद नहीं प्राप्त होता है ।
अध्याय :
अष्टाध्यायी में अध्यायों की संख्या आठ है । प्रत्येक अध्याय में ४–४ पाद हैं । इस तरह कुल आठ अध्यायों में ३२ पाद हैं । सूत्रों की संख्या अध्यायवार भिन्न–भिन्न है । कुल सूत्रों की संख्या प्रायः ४००० है । अष्टाध्यायी को अष्टक और पाणिनीय भी कहते हैं । १४ प्रत्याहार सूत्रों को लेकर इसकी सूत्रसंख्या ३९९५ मानी जाती है । प्रायः सभी लेखकों ने इतनी ही सूत्रसंख्या मानी है किन्तु वास्तविक गणना से ज्ञात होता है कि कुल सूत्र ३९९७ हैं ।
अध्यायों के क्रम से सूत्रसंख्या निम्न प्रकार से है :
- 351
- 268
- 631
- 635
- 555
- 736
- 438
- 369
किसी एक पाद में सर्वाधिक सूत्र छठें अध्याय के प्रथम पाद में हैं । इसमें कुल २२३ सूत्र हैं । सबसे कम सूत्र द्वितीय अध्याय के द्वितीय पाद में हैं । इसमें कुल ३८ सूत्र मात्र हैं ।
अध्यायों का विषयक्रम :
प्रत्येक अध्याय में निम्नलिखित विषयों के सूत्र समाहित हैं ।
- परिभाषाएँ‚ परस्मैपदी व आत्मनेपदी प्रक्रियाएँ‚ कारक (चतुर्थी‚ पंचमी) ।
- समास‚ कारक (तृतीया‚ पंचमी‚ षष्ठी‚ सप्तमी)
- कृत्य और कृत् प्रत्यय
- कृत् प्रत्यय
- तद्धित प्रत्यय
- तिङन्त‚ सन्धि‚ स्वर‚ अंगाधिकार प्रारम्भ
- अंगाधिकार (सुबन्त‚ तिङन्त)
- द्विरुक्त स्वर प्रक्रिया‚ सन्धि प्रकरण‚ षत्व‚ णत्व
अष्टाध्यायी के पूरक ग्रन्थ :
अष्टाध्यायी में बहुत स्थानों पर सूत्रों में कई धातुओं या शब्दों का कथन करने की आवश्यकता पड़ती है । इन धातुओं‚ लिंगों अथवा शब्दों आदि को यदि सूत्रों में साक्षात् समाहित किया जाता तो सूत्रों के आकार बहुत बड़े हो जाते । इसके समाधान के लिये महर्षि पाणिनि ने उन धातुओं‚ लिंगों‚ शब्दों आदि को गणों में विभाजित कर दिया । इन गणों के निर्माण के कारण सूत्रों के आकार छोटे हो गये । महर्षि ने इन गणों को अलग ग्रन्थों के रूप में रख दिया । ये ग्रन्थ अष्टाध्यायी के पूरक होने के कारण अष्टाध्यायी के अंगरूप में ही स्वीकार किये गये । इन ग्रन्थों के नाम व विवरण संक्षेप में निम्न हैं ।
- गणपाठ : जहाँ एक ही कार्य अनेक शब्दों लागू हुए हैं वहाँ वे सभी शब्द न देकर बल्कि उनका एक गण बना कर केवल प्रथम शब्द के साथ आदि लगाकर सूत्र में उपयोग किया गया । इससे सूत्र अनावश्यक रूप से लंबे नहीं हुए । इन्हीं गणों को समाहित करने वाला ग्रन्थ गणपाठ नाम से जाना जाता है । इसमें कुल २५८ गणसूत्र बनाए गये हैं ।
- धातुपाठ : धातुपाठ में साधुओं के साथ जो अनुबन्ध लगे हैं तदनुसार ही पाणिनि ने सूत्र भी बनाए हैं । धातुपाठ में धातुएँ दी गई हैं और साथ में उनका किस अर्थ में प्रयोग होता है यह भी दिया गया है । सारी धातुएँ १० गण में विभक्त हैं और कुल १९४४ धातुओं को धातुपाठ में समाहित किया गया है ।
- उणादिसूत्र : यह कृत् प्रकरण का एक अंश है । इसमें धातु से कुछ प्रत्यय लगाकर संज्ञा‚ विशेषण आदि शब्द बनाए जाते हैं । इसमें ५ अध्याय हैं और ७५९ सूत्र हैं । इन प्रत्ययों से बने शब्द कृदन्त होते हैं । संस्कृतेतर शब्दों की सिद्धि के लिये यह ग्रन्थ पर्याप्त छूट प्रदान करता है । उणादि का ही आश्रय लेकर वैयाकरण मियाँ‚ मौलाना आदि शब्दों को भी सिद्ध कर देते हैं । इन्हीं सूत्रों के सहारे वैयाकरण सभी शब्दों को धातुज कहने का साहस करते हैं ।
- लिङ्गानुशासन : इसमें शब्दों के लिंग के विषय में विस्तृत शिक्षा दी गई है । इसमें १८८ सूत्र हैं । इनको ६ भागों में बाँटा गया है । १. स्त्रीलिंग शब्द‚ २. पुंलिंग शब्द‚ ३. नपुंसकलिंग शब्द‚ ४. स्त्रीलिंग–पुंलिंग‚ ५. पुलिंग–नपुंसकलिंग व ६. विविध ।
अष्टाध्यायी के सूत्रों को कहीं–कहीं अधिक दुरूह अथवा अस्पष्ट मानकर आचार्य कात्यायन ने प्रायः १५०० सूत्रों पर ४००० वार्तिकों की रचना की । इन वार्तिकों ने प्रायः तो पाणिनीय अष्टाध्यायी का उपकार ही किया किन्तु आचार्य कात्यायन ने कहीं–कहीं पाणिनीय सूत्रों की अनावश्यक आलोचना भी कर दी । इन्हीं कमियों को दूर करते हुए कालान्तर में आचार्य पतंजलि ने महाभाष्य ग्रन्थ की रचना की । इस प्रकार अष्टाध्यायी‚ वार्तिक व महाभाष्य ये तीनों ही ग्रन्थ व्याकरण के स्तम्भ सिद्ध हुए । इनकी महत्ता और प्रसिद्धि के ही कारण इनके कर्ता पाणिनि‚ कात्यायन व पतंजलि को सम्मिलित रूप से व्याकरण का त्रिमुनि कहा जाने लगा ।
यूँ तो अष्टाध्यायी के पूर्व व पश्चात् भी व्याकरणग्रन्थों की सत्ता प्राप्त होती है किन्तु जितना प्रसिद्ध यह ग्रन्थ हुआ उतनी प्रसिद्धि अन्य किसी व्याकरणग्रन्थ को प्राप्त नहीं हो सकी । आज व्याकरण व अष्टाध्यायी प्रायः पर्याय माने जाते हैं ।
क्रमशः......
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