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ह्रस्व‚ दीर्घ व प्लुत संज्ञा : संज्ञा प्रकरण
SANSKRITJAGAT 19/02/2021 | 09:46 PM
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१. ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः ।। ल.कौ. ५ । अष्टा. १.२.२७ ।।
वृत्ति : उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः‚ वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् । स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ।
अर्थ : एक मात्रिक (उ), द्विमात्रिक (ऊ) तथा तीन मात्राओं वाले (उ३) के समान जिस स्वर का उच्चारणकाल होता है‚ वह स्वर क्रमशः ह्रस्व‚ दीर्घ और प्लुत होता है । अर्थात् एक मात्रा वाला स्वर ह्रस्व‚ दो मात्राओं वाला दीर्घ व तीन मात्राओं वाला स्वर प्लुत कहलाता है । प्रत्येक (ह्रस्व‚ दीर्घ व प्लुत) स्वर उदात्त‚ अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का होता है ।
टिप्पणी : संस्कृत वर्णमाला में नौ स्वर स्वीकार किये गये हैं । इनमें से अ‚ इ‚ उ तथा ऋ के ह्रस्व‚ दीर्घ व प्लुत तीनों ही भेद होते हैं तथा इन तीनों भेदों के उदात्त‚ अनुदात्त और स्वरित भेद होत हैं । लृ के ह्रस्व व प्लुत दो भेद होते हैं । लृ का दीर्घ भेद नहीं होता है । इसके दोनों भेद पुनः उदात्तादि भेद से तीन–तीन प्रकार होते हैं । इसी तरह ए‚ ओ‚ ऐ व औ के लघु भेद नहीं होते अपितु दीर्घ व प्लुत भेद होते हैं । इनका भी अवान्तर विभाजन उदात्तादि भेदों में (तीन–तीन प्रकार) होता है ।
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