वैदिक साहित्य के महत्व के प्रमुख कारण निम्नलिखित प्रतीत होते हैं –
१. धार्मिक दृष्टि : धार्मिक दृष्टि से वेद भारत में सर्वोपरि हैं । ये सनातन धर्म के मूल स्रोत हैं – 'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' । वास्तव में ये केवल सनातन धर्म ही नहीं अपितु धर्ममात्र के ही मूल स्रोत हैं –
यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः
स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ।। मनुस्मृति २.७ ।।
महाराज मनु ने इसे देवों‚ पितरों और मनुष्यों सभी का नित्य नेत्र बतलाया है :
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः ।। मनुस्मृति १२.९४ ।।
धर्म की जिज्ञासा रखने वालों के लिये वेद ही परम प्रमाण हैं– 'धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' (मनुस्मृति २.१३) । यज्ञ संस्था का उद्भव व विकास‚ संस्कारों सहित समस्त गृह्यानुष्ठान‚ वर्णाश्रम व्यवस्था‚ पुरुषार्थ चतुष्टय‚ तीन ऋण‚ पंच महायज्ञ‚ चार आश्रम‚ नामजप‚ तीर्थ स्नानादि का विवरण आदि सभी वेदों में ही सन्निहित है । पुरुषसूक्त के एक मन्त्र में वेदों को सृष्टि का प्रथम नियम कहा गया है – 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' । इससे ज्ञात होता है कि वेद ही विश्व का आदि संविधान भी है ।
२. दार्शनिक दृष्टि : दार्शनिक दृष्टि से सभी आस्तिक दर्शन अपना मूल स्रोत वेद को ही मानते हैं । वैशेषिक दर्शन का सूत्र – 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' (१.१.३) तत् अर्थात् परमेश्वर के वचनों को ही वेद कहता है और इसीलिये वेदों को प्रमाणरूप में स्वीकार करता है । वेदान्त में श्रुति को प्रत्यक्ष कहा गया है क्योंकि उसे अपने प्रामाण्य के लिये किसी अन्य की अपेक्षा नहीं होती 'प्रत्यक्षं श्रुतिः प्रामाण्यं प्रत्यनपेक्षत्वात्' । (ब्रह्मसूत्र १.३.२९) में श्रुति को नित्य कहा गया है – 'अत एव च नित्यत्वम्' । मीमांसा का आविर्भाव ही वेद के गौरववर्धन के लिये हुआ है । वह उसे सर्वस्व मानती है । वाचस्पति मिश्र के अनुसार महाप्रलय में नित्य सर्वज्ञ परमेश्वर वेद का प्रणयन कर सृष्टि के आदि में स्वयं ही विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों का प्रवर्तन करता है– 'महाप्रलये तु ईश्वरेण वेदान् प्रणीय सृष्ट्यादौ स्वयमेव सम्प्रदायः प्रवर्त्यत एवेति भावः' (न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका) ।
३. सामाजिक दृष्टि : सामाजिक‚ राजनैतिक व सांस्कृतिक दृष्टि से उपयोगी विभिन्न संस्थाओं का मूल आविर्भाव वेदों से ही हुआ है‚ जैसा कि मनु महाराज का कथन है –
सर्वेषां स च नामानि कर्माणि च पृथक्–पृथक्
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।। मनुस्मृति १.२१ ।।
वर्णव्यवस्था का मूल पुरुषसूक्त के ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्... मन्त्र में निहित है । तैत्तिरीय संहिता में ३०० व्यवसायों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त सामाजिक शिष्टाचार‚ कर्तव्य‚ राष्ट्ररक्षा‚ विभिन्न शासनप्रणालियाँ‚ संस्थाएँ‚ सभाएँ‚ समितियाँ व प्रजातान्त्रिक पद्धति का वर्णन वेदों में प्राप्त होता है । आर्थिक नीतियों और सिद्धान्तों का निर्धारण भी वेदों के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त करता है । एक ही परिवार के विभिन्न लोग विभिन्न व्यवसायों को करते हुए सुख‚ शान्ति व सौमनस्य से रहते थे इसकी सूचना निम्न मन्त्र से मिलती है –
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।
नाना धियो वसूयवोऽनुगा इव तस्थिमेन्द्रायेन्द्रो परिस्रव ।। ऋग्वेद ९.११२.३ ।।
(मैं मन्त्रसमूहों का रचयिता अर्थात् कवि हूॅं‚ मेरा पुत्र वैद्य है‚ मेरी कन्या बालू से जौ आदि सेंकती है । इस प्रकार हम लोग भिन्न–भिन्न कर्म करते हुए भी परस्पर सहयोग से रहते हैं ।)
सौहार्द की मिसाल के रूप में निम्न मन्त्र अद्भुत उदाहरण है –
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुतस्वसा ।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वाव्वाचं वदत भद्रया ।।
अथर्ववेद का यह मन्त्र आज के तनावपूर्ण वातावरण में कितना प्रासंगिक है कहने की आवश्यकता नहीं है ।
४. ऐतिहासिक दृष्टि : केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के इतिहास को जानने का प्रथम माध्यम वेद ही हैं । सप्तसैन्धव प्रदेश के इतिहास‚ भूगोल‚ पर्यावरण‚ नदियों‚ दाशराज्ञ युद्ध‚ विभिन्न राजाओं और जनसमूहों के विषय में वेदों में असीम सामग्री संचित है ।
५. वैज्ञानिक दृष्टि : वैज्ञानिक व पर्यावरण आदि की दृष्टि से भी वेदों में महत्वपूर्ण सामग्री संचित है । विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा भौतिकी‚ गणित‚ आयुर्विज्ञान‚ वनस्पतिशास्त्र आदि की दृष्टि से वेदों का अनुशीलन होता रहा है । वैदिक गणित को आजकल विभिन्न संस्थाओं में पढाया भी जा रहा है । वेदों में निहित विभिन्न वैज्ञानिक व आयुर्वेदिक तथ्यों को आज के विज्ञान की कसौटी पर भी कसा जा रहा है जिसके परिणाम चमत्कारिक रूप से सत्य सिद्ध हो रहे हैं । सम्भवतः इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों को सभी सत्यविद्याओं से युक्त बताया है । आज की सरकारें भी वेदों के अध्ययन व उनपर शोध को बढ़ावा दे रही हैं भविष्य में निश्चय ही इसके सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे ।
६. भाषाशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि : इस दृष्टि से तो वेदों में इतनी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है कि अभी तक इनका विशद अध्ययन ही नहीं हो सका है । भाषा के चार रूपों – परा‚ पश्यन्ती‚ मध्यमा और वैखरी की अवधारणा का मूल ऋग्वेद का वाकसूक्त है जिसमें भाषा के सामर्थ्य का निरूपण किया गया है । प्रातिशाख्यों व यास्कीय निरुक्त में भाषाविज्ञान की दृष्टि से अथाह सामग्री है । इसके साथ ही पिछले कुछ समय से वेदों का साहित्यशास्त्रीय अनुशीलन भी होने लगा है ।
इन उक्त विभिन्न दृष्टियों से वेदों का निरन्तर अनुशीलन होने पर भी अभी वेदों का नावीन्य अक्षुण्ण है । वेदों को जितनी भी बार‚ जिस भी दृष्टि से पढ़ा जाए‚ हर बार एक नया अर्थ व दृष्टिकोण प्राप्त होता है । इसीलिये मनीषियों ने वेदों के विषय में नेति–नेति कहकर इनके गौरव व असीमता का दर्शन कराया है ।
इति....