शुनःशेप आख्यान ऋग्वेदीय ऐतरेय ब्राह्मण की सातवीं पञ्चिका के तृतीय अध्याय (एक से छः खण्डों) में वर्णित है । तदनुसार ऐतरेय आरण्यक का तैंतीसवाँ अध्याय शुनःशेप आख्यान नाम से अभिहित है । इसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान भी कहा जाता है । अख्यान इस प्रकार है –
इक्ष्वाकु वंश के वेधस राजा हरिश्चन्द्र निःसन्तान थे । उनकी सौ पत्नियाँ थीं पर किसी से भी उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई । उनके घर में नारद और पर्वत ऋषि रहते थे । राजा ने नारद ऋषि से पूछा कि पुत्र होने से क्या लाभ है ? महर्षि नारद ने दस श्लोकों में उत्तर दिया, जिसका सारांश यह है कि पुत्र होने से पिता पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है‚ पुत्र आत्मा से उत्पन्न होने के कारण आत्मवत् होता है‚ पुत्र द्वितीय लोक की ज्योति (प्रकाशक) है‚ पति ही पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट हो पुत्र रूप में जन्म लेता है‚ स्त्री तभी जाया होती है जब पुरुष उसमें बीज बो कर उपजता है‚ जिसके पुत्र नहीं उसका कोई लोक नहीं‚ जिनके पुत्र होते हैं वे शोक रहित हो चौड़े चकले मार्ग पर चलते हैं ।
इस उपदेश के बाद महर्षि नारद ने राजा से कहा, 'तुम वरुण के पास जाकर पुत्र मांगो और कहो कि मैं उस पुत्र से ही तुम्हारा यज्ञ करूँगा' । राजा ने वैसा ही किया । वरुण की कृपा से राजा को रोहित नामक पुत्र प्राप्त हुआ । वरुण ने राजा से कहा, 'अब तू पुत्र से मेरा यजन कर' । राजा विभिन्न अवस्थाओं की दुहाई दे वरुण को टालता रहा । जब रोहित क्षत्रधारी हो गया तब पुनः वरुण ने कहा, 'अब तू इससे मेरा यज्ञ कर' । राजा ने पुत्र को बुलाया और कहा‚ 'जिसनें तुझको मुझे दिया है मैं तुझे उसको यज्ञ में दूँगा' । पुत्र ने मना कर दिया और वन में चला गया ।
अपनी अवहेलना होने पर वरुण ने हरिश्चन्द्र को पकड़ लिया और उसे जलोदर रोग हो गया । इस बात को रोहित ने सुना तो वह जंगल से वापस लौटने लगा । रास्ते में इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप रख उसे 'चरैवेति चरैवेति' का उपदेश किया । ब्राह्मण की आज्ञा मान रोहित पुनः वन में विचरण करने लगा । छः बार रोहित ने वापस लौटने की इच्छा की और हर बार इन्द्र नें उसे चरैवेति का उपदेश कर वापस लौटा दिया । इस तरह रोहित छः वर्षों तक वन में विचरण करता रहा । इसी प्रसंग में वह जंगल में सुयवस के पुत्र अजीगर्त से मिला जो बिना भोजन के रह रहा था । उसके तीन पुत्र थे १- शुनःपुच्छ‚ २- शुनःशेप व ३- शुनोलांगूल । रोहित ने अजीगर्त से कहा - 'तुम मुझे अपना एक पुत्र यज्ञ करने के लिये दे दो‚ मैं तुम्हें सौ गायें दूँगा' । अजीगर्त लालच में पड़ गया । उसने ज्येष्ठ पुत्र को लेकर कहा इसे मत लो‚ उसकी पत्नी ने सबसे छोटे पुत्र को देने से मना किया । पर वे दोनों मध्यम पुत्र शुनःशेप को देने के लिये मान गये । रोहित ने सौ गायें अजीगर्त को दीं और उसके पुत्र को लेकर घर आया । आकर पिता से बोला मैं इसके द्वारा अपने को यज्ञ बलि से बचाऊँगा । तब राजा हरिश्चन्द्र वरुण के पास जाकर बोला, 'मैं इसके द्वारा तेरा यज्ञ करूॅंगा' । वरुण ने कहा‚ 'अच्छा‚ क्योंकि ब्राह्मण क्षत्रिय से श्रेष्ठ है इसलिये मैं इसको ग्रहण करूँगा' । तब वरुण ने उसको राजसूय यज्ञ की विधि बताई । इस प्रकार अभिषेचन के दिन राजा ने पशु के बदले पुरुष को बलि नियुक्त किया ।
इस यज्ञ में विश्वामित्र होता थे‚ जमदग्नि अध्वर्यु थे‚ वसिष्ठ ब्रह्मा थे तथा अयास्य उद्गाता थे । यज्ञ आरम्भ करने पर बलिपशु के रूप में शुनःशेप को बाँधने के लिये कोई व्यक्ति नहीं मिला । अजीगर्त ने कहा‚ 'मुझे सौ गायें और दो । मैं उसको बाँधूँगा' । राजा ने उसे सौ गायें और दी । अजीगर्त ने अपने पुत्र को बाँध दिया । आप्रि मन्त्रों के पाठ और अग्नि की परिक्रमा के उपरान्त बलिपशु का वध करने हेतु कोई नहीं मिला । तब अजीगर्त ने सौ और गायों के बदले उसका वध करना स्वीकार किया । उसे सौ गायें दी गईं और वह तलवार तेज करने लगा । अपने ही पिता को ऐसा करते देख शुनःशेप प्रजापति की निम्न ऋचा द्वारा स्तुति करने लगा -
कस्य नूनं कतमस्यामृतानाम्... ऋग्वेद १|२४|१
प्रजापति ने उसे अग्नि के पास‚ अग्नि ने सविता के पास‚ सविता ने वरुण के पास‚ वरुण ने पुनः अग्नि की शरण में जाने को कहा । तब अग्नि ने उसे विश्वदेवों की स्तुति करने के लिये कहा । विश्वदेवों ने उसे देवराज इन्द्र के पास जाने को कहा । उसके इन्द्र की स्तुति करने पर इन्द्र ने उसे एक सोने का रथ दिया और अश्विनों की स्तुति करने को कहा‚ अश्विनों ने उषा की स्तुति के लिये आदेश किया ।
इस प्रकार जैसे-जैसे वो विभिन्न देवों की स्तुति करता गया‚ उसके बन्धन खुलते गये और हरिश्चन्द्र का पेट पचता गया । जब उसने अन्तिम मन्त्र पढ़ा तो उसके सभी बन्धन खुल गये और राजा हरिश्चन्द्र पूरी तरह स्वस्थ हो गया । अब ऋत्विजों ने शुनःशेप से कहा – 'अब तू हम में से ही एक है । अतः आज के यज्ञ में भाग ले' । तब शुनःशेप ने सोमरस निकालने की विशिष्ट विधि निकाली और चार ऋचाओं द्वारा सोम निकालकर द्रोणकलश में रखा । उसने सोमयज्ञ किया और यज्ञ की अन्तिम आहुतियाँ देते हुए हरिश्चन्द्र को आहवनीय के पास बुलाकर मन्त्र पढे ।
यज्ञ की समाप्ति पर शुनःशेप विश्वामित्र की गाेद में जा बैठा । अजीगर्त ने विश्वामित्र से कहा – 'हे महर्षि मुझे मेरा पुत्र लौटा दो' । विश्वामित्र ने कहा – 'इसे मुझे देवों ने दिया है अतः अब से यह मेरा पुत्र हुआ । आज से इसका नाम देवरात वैश्वामित्र है । मैं इसे अपने सभी पुत्रों में ज्येष्ठ के रूप में स्वीकार करता हूॅं' । इसके बाद विश्वामित्र ने अपने सभी सौ पुत्रों की सहमति चाही । उनमें से मधुच्छन्दा से ज्येष्ठ पचास पुत्रों ने विरोध किया तथा शेष सभी पचास पुत्रों ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए शुनःशेप को ज्येष्ठ भ्राता का स्थान दिया । अपना विरोध करने वाले पचास पुत्रों को विश्वामित्र ने शूद्र हो जाने का शाप दिया । उन्हीं से एन्ध्र‚ पुण्ड्र‚ शबर‚ पुलिंद आदि दस्यु जातियाँ प्रचलित हुईं । इसके अनन्तर विश्वामित्र ने अपना समर्थन करने वाले पुत्रों की स्तुति की ।
इस तरह शुनःशेप विश्वामित्र के ज्येष्ठ पुत्र हुए । ये जह्नु ऋषि की सम्पत्ति और गाथि ऋषि के वंश की विद्या की परम्परा को धारण करने के कारण दो ऋषियों की परम्परा के वाहक हुए । यहाँ पर शुनःशेप आख्यान सम्पन्न होता है । इसके बाद इस आख्यान के पठन-श्रवणादि का माहात्म्य वर्णित है । विभिन्न पापों के निवारण और सन्तान की प्राप्ति के लिये शुनःशेप की कथा का श्रवण लाभदायी है ।
इति...