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वाङ्मनस् आख्यान : शतपथ ब्राह्मण १.४.५.८-१३ ।
SANSKRITJAGAT 26/01/2021 | 10:06 PM
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वाङ्मनस् विषयक आख्यान शतपथ ब्राह्मण (१.४.५.८-१३) के प्रथम काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक के अन्तर्गत पाँचवें ब्राह्मण में मन्त्र संख्या आठ से तेरह पर्यन्त प्राप्त होता है । यह आख्यान संवादशैली में है । इसका सारसंक्षेप निम्नवत् है –
एक बार वाणी और मन के बीच विवाद हो गया । मन ने कहा - 'मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्यूॅंकि मैं जो जानता हूॅं तुम वही बोलती हो । जो मैं नहीं जानता उस विषय में तुम नहीं बोल सकती । इस तरह तुम मेरा अनुकरण करने के कारण मुझसे श्रेष्ठ कैसे हो सकती हो ? अतः मैं ही तुमसे श्रेष्ठ हूँ' ।
तब वाणी बोली - 'मैं तुमसे श्रेष्ठ हूॅं‚ क्योंकि जो तुम जानते हो उसे मैं ही विज्ञापित और प्रकाशित करती हूॅं' ।
इस प्रकार से झगड़ते हुए वे दोनों प्रजापति के पास पहुँचे और निर्णय करने को कहा । प्रजापति ने वाणी को संकेतित करते हुए कहा कि मन ही तुमसे श्रेष्ठ है । तुम मन का ही अनुसरण करने वाली हो । अनुकर्ता छोटा और क्षुद्र होता है । इस तरह से प्रजापति से प्रतिकूल निर्णय सुनकर वाणी ने उद्विग्न होकर गर्भ त्याग दिया और प्रजापति से बोली‚ मैं तुमसे हविद्रव्य प्राप्ति का अधिकार छीनती हूँ । अब से तुम अहव्यवाट् ही रहो अर्थात् हवि प्राप्ति के अनधिकारी ही रहो क्यूँकि मैं तुम्हारे द्वारा निन्दित और विनिपातित हूँ । तब से यज्ञ में प्रजापति के लिये जो कुछ भी करते हैं वह उपांशु ही किया जाता है ।
भगवती वाग् के द्वारा गलित और पातित वही गर्भ अत्रि हुए । इसीलिये तभी से आज तक गलितगर्भा रजस्वला स्त्री को आत्रेयी कहा जाता है ।
इति...
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