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उदात्त‚ अनुदात्त व स्वरित संज्ञा : संज्ञा प्रकरण

  SANSKRITJAGAT     19/02/2021 | 10:03 PM   0

१. उच्चैरुदात्तः ।। ल.कौ. ६ । अष्टा. १.२.२९ ।।

अर्थ : कण्ठ‚ तालु आदि स्थानों के ऊपरी भाग से जिस स्वर की उत्पत्ति होती है उसे उदात्त कहते हैं । यहाँ ऊपरी भाग से आशय उच्चारण ध्वनि से है न कि मुख के अन्दर के स्थान से ।

२. नीचैरनुदात्तः ।। ल.कौ. ७ । अष्टा. १.२.३० ।।

अर्थ : कण्ठ‚ तालु आदि स्थानों के निचले भाग से जिस स्वर की उत्पत्ति होती है उसे अनुदात्त कहते हैं ।

३. समाहारः स्वरितः ।। ल.कौ. ८ । अष्टा. १.२.३१ ।।

वृत्ति : स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा ।

अर्थ : कण्ठ‚ तालु आदि स्थानों के मध्य भाग से जिस स्वर की उत्पत्ति होती है उसे स्वरित कहते हैं । अर्थात् उदात्त और अनुदात्त वर्णों के धर्मों का जिस वर्ण में मेल होता है वह स्वरित कहलाता है । वह नव प्रकार का स्वर पुनः अनुनासिक व अननुनासिक (निरनुनासिक) भेद से दो प्रकार का होता है ।

टिप्पणी : जिस स्वर के ह्रस्व‚ दीर्घ व प्लुत तीनों ही भेद होते हैं उनके प्रत्येक भेद के पुनः उदात्तादि भेद होने से नौ प्रकार होते हैं । उदाहरणार्थ – वर्ण के तीन भेद अ‚ आ व अ३ हैं । इन तीनों ही भेदों के उदात्त‚ अनुदात्त व स्वरित भेद होने से ३x३ = ९ भेद होते हैं । इन नौ भेदों के पुनः अनुनासिक व अननुनासिक भेद होने पर ९x२=१८ भेद होते हैं । किन्तु जिन स्वरों के केवल दो भेद (ह्रस्व–प्लुत/दीर्घ–प्लुत) होते हैं उनके छः भेद कम हो जाते हैं । इस तरह उनके १२ भेद होते हैं । इनका समग्र वर्णन आगे तालिका के द्वारा किया जाएगा ।

क्रमशः...

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