वेद शब्द विद् धातु से घञ् प्रत्यय लगने पर निष्पन्न हुआ है जिसका
अर्थ है पवित्र ज्ञान । स्वर की दृष्टि से यह आद्युदात्त और अन्तोदात्त
दोनों ही रूपों में प्राप्त होता है । ज्ञानार्थक वेद शब्द आद्युदात्त है
जबकि अन्तोदात्त वेद शब्द का अर्थ है कुशमुष्टि । पाणिनीय गणपाठ में यह
वृषादिगण तथा उञ्छादिगणों में प्राप्त होता है । विद् धातु के चार अर्थों
में प्रयोग प्राप्त होते हैं – लाभ‚ सत्ता‚ ज्ञान और विचारणा । इसीलिये
विद्वानों ने वेद का निर्वचन सभी दृष्टियों से किया है । ऋक्प्रातिशाख्य के
अन्तर्गत विष्णुमित्र की वर्गद्वयवृत्ति में – 'विद्यन्ते ज्ञायन्ते
लभ्यन्ते एभिर्धमादि पुरुषार्थाः इति वेदाः' ऐसी व्युत्पत्ति की गई है ।
इसमें तीनों धात्वर्थ समाहित हैं ।
बह्वृच्प्रातिशाख्य में वेद का अर्थ - विद्यन्ते धर्मादय: पुरुषार्थ: यैस्ते वेदा: अर्थात् जिससे धर्म‚ अर्थ‚ काम‚ मोक्ष‚ इन चारों पुरुषार्थों के बारे में ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ही वेद हैं, दिया गया है । सायणाचार्य अपनी ऋग्वेदभाष्यभूमिका में वेद का अर्थ - अपौरुषेयवाक्यं वेद:
अर्थात् जो स्वयं प्रकट हुए हैं किंवा जिनका निर्माण मनुष्य ने नहीं किया
है वे वेद हैं‚ लिखा है । सायणाचार्य के ही अनुसार इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट
निवारण का अलौकिक उपाय बताने वाले ग्रन्थ वेद हैं –
'इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः' ।
वास्तव में ज्योतिष्टोम याग के अनुष्ठान से अभिलषित प्राप्ति और कलञ्ज
(विषाक्त शस्त्र से आहत जन्तु) भक्षण के त्याग से अनिष्ट का निवारण होगा
इसका ज्ञान न तो किसी प्रत्यक्ष विधि से सम्भव है और अनुमापक हेतु के अभाव
में यह अनुमानप्रक्रिया से भी गम्य नहीं है इसलिये यह वेद ही बतला सकता है –
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता ।।
वेद के विभिन्न नाम –
वेद को
श्रुति‚ त्रयी‚ छन्दस्‚ निगम‚ आम्नाय‚
समाम्नाय व स्वाध्याय नामों से भी अभिहित किया जाता है ।
श्रुति
- गुरुमुख से सुनकर प्राप्त होनेे के कारण यह श्रुति है ।
त्रयी - रचनात्रैविध्य के कारण (ऋचा, यजुष्, सामन्) वेद का नाम त्रयी भी है ।
छन्दस्
- छन्द अर्थात् बन्धन - छन्दान्सि छादनात् । छन्द मनोभावों को
ढक लेते हैं । निघण्टु में छन्द का कान्ति अर्थ भी प्राप्त होता है । पूजा
के भी अर्थ में छन्द शब्द का प्रयोग होता है । आगे छन्द शब्द का
विशिष्टार्थ साममन्त्रों के प्रति हुआ ।
निगम - यास्क के अनुसार निगम का अर्थ अर्थयुक्त है । यह नाम वेदों की गम्भीर अर्थवत्ता पर बल देता है । ।
आम्नाय/समाम्नाय –
म्ना
धातु का प्रयोग अभ्यास के अर्थ में होता है । ये दोनों ही शब्द वेद के
दैनिक अभ्यास के कारण वेद के पर्याय हैं ।
नागेश के
लघुशब्देन्दुशेखरगत कथन
'आम्नायसमाम्नायशब्दौ वेदे एव रूढौ' के अनुसार आम्नाय और समाम्नाय शब्दों
में कोई भी अन्तर नहीं है । मीमांसाकार जैमिनि और निरुक्तकार यास्क दोनों
को ही ये नाम अत्यन्त प्रिय हैं ।
स्वाध्याय - वेद का प्रतिदिन सम्यक रूप से अध्ययन होने के कारण वेद का नाम स्वाध्याय भी है ।
वेद का महत्व -
धार्मिक
दृष्टि से वेद भारत में सर्वोपरि हैं । ये सनातन धर्म के मूल स्रोत हैं –
'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' । मनु ने इन्हें धर्ममात्र का ही मूलस्रोत कहा है –
यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः
स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ।। मनुस्मृति २.७ ।।
धर्म के जिज्ञासुओं के लिये वेद परम प्रमाण हैं - 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' । आगे मनु ने इसे देवों‚ पितरों और मनुष्यों सभी का नित्य नेत्र बतलाया है :
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम् ।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः ।। मनुस्मृति १२.९४ ।।
यज्ञसंस्था के उद्भव व विकास‚ संस्कारों सहित समस्त गृह्यानुष्ठानों का विवरण‚ वर्णाश्रम व्यवस्था‚ पुरुषार्थ चतुष्टय‚ तीन ऋणों‚ पञ्च महायज्ञों आदि सभी का वर्णन वेदों में ही निरूपित है । आगे चलकर नामजप‚ तीर्थ स्नानादि का विवरण भी इन्हीं में सन्निहित है । पुरुषसूत्र में इन्हें ही शृष्टि का प्रथम नियम कहा गया है - 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' । दार्शनिक दृष्टि से सभी आस्तिक दर्शनों का मूल स्रोत वेद ही हैं । सामाजिक‚ राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उपयोगी विभिन्न संस्थाओं का मूल आविर्भाव वेदों से ही हुआ है‚ जैसा कि मनु का कथन है -
सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।। मनुस्मृति १.२१ ।।
वर्णव्यवस्था का मूल भी वेद ही हैं । तैत्तिरीय संहिता में ३०० व्यवसायों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त सामाजिक शिष्टाचार‚ कर्तव्यों का निर्देश यहाँ तक कि राष्ट्र रक्षा के विविध उपायों‚ विभिन्न शासन प्रणालियों‚ सिद्धान्तों आदि का भी वर्णन वेदों में प्राप्त होता है ।
क्रमशः....