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वेदों का आविर्भाव

  SANSKRITJAGAT     06/02/2021 | 07:26 PM   0

भारतीय परम्परा वेदों को अपौरुषेय अर्थात् किसी मनुष्य की कृति नहीं मानती है । मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम मिलते हैं वे वस्तुतः उनके रचयिता नहीं अपितु द्रष्टा हैं । सायणाचार्य के अनुसार ऋषि अतीन्द्रिय अर्थ को जानने वाले हैं – 'अतीन्द्रियार्थद्रष्टारो हि ऋषयः' । यास्क के शब्दों में – 'साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः । तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मेभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः (निरुक्त १.२)
ग्रन्थरूप में वेद मानवसमुदाय को कैसे प्राप्त हुए इस विषय में प्रायः ४० मत हैं जिनको तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है :

१. अपौरुषेय वेद : पूर्वमीमांसाकार जैमिनि व उनके भाष्यकार शबरस्वामी व वार्तिककार कुमारिलभट्ट ने इसका विशद विवेचन करते हुए निम्न युक्तियाँ दी हैं –
क. जो वस्तु जिसके द्वार निर्मित होती है उसके साथ किसी न किसी प्रकार से उसके कर्ता का स्मरण बना रहता है किन्तु वेदों के कर्ता का किसी को कोई परिचय नहीं प्राप्त होता है‚ इससे इनका कर्ता रहित होना सिद्ध होता है ।
ख. मनुष्य जिन बातों को न तो प्रत्यक्ष देख सकता है न ही उनका किसी भी भाँति अनुभव कर सकता है‚ इन वेदों में उन्हीं देवता‚ आत्मा‚ स्वर्ग‚ कर्मफलादि का विवरण है । बिना ज्ञान के इन वस्तुओं का वर्णन तो क्या इनके अभिधायक शब्दों के प्रयोग भी सम्भव नहीं हैं । पुनश्च इन परोक्ष विषयों का ज्ञान किसी मनुष्य को हो भी नहीं सकता‚ अतः वेद स्वयम्भू हैं यह स्वतःसिद्ध है । यदि ये कहा जाए कि किसी व्यक्ति ने इनकी कल्पना करके इन्हें यूॅं ही लिख दिया है तो यह भी उचित नहीं क्यूँकि वेदों पर हुए शोध उनकी प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं‚ अतः इन्हें स्वयम्भू मान लेना उचित ही है ।
अब इनमें प्राप्त ऋषि कौन हैं इस प्रश्न का उत्तर है कि इनमें प्राप्त ऋषियों के नाम वस्तुतः इनके प्रवचनकर्ताओं के नाम हैं 'आख्या प्रवचनात् (मीमांसा सूत्र)
इनकी उत्पत्ति के विषय में शतपथ ब्राह्मण कहता है कि जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि से छोटी–छोटी चिनगारियां स्वतः निकलती रहती हैं उसी प्रकार महाभूत परमात्मा के निःश्वास से ऋग्वेद‚ यजुर्वेद‚ सामवेद और अथर्वाङ्गिरस वेद प्रकट होते हैं : 'यथा प्रदीप्तात् पावकाद् विस्फुल्लिङ्गा व्युच्चरन्ति‚ एवं वा अरे अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इति' शत.ब्रा. १४वाँ काण्ड

२. वेदों का रचयिता ईश्वर : न्याय–वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को वेद का रचयिता माना गया है । इनके अनुसार हर ग्रन्थ का रचयिता होता है तो फिर वेदों का भी रचयिता होना ही चाहिये किन्तु वेदों की वाक्य–रचना बुद्धिपूर्वक हुई है –'बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेेदे' (वैशेषिक ६.१.१) । इसीलिये किसी बुद्धिमान् को ही उनका कारण मानना पड़ेगा और वह परमेश्वर ही हो सकता है । अपने समर्थन में आचार्य पुरुषसूक्त का निम्न मन्त्र उद्धृत करते हैं
तस्मात् यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ।। ऋग्वेद १०.९०.९ ।।

दूसरी बात यह है कि ईश्वर को वेदों का कर्ता मान लेने से वेदों के प्रामाण्य में कोई सन्देह नहीं उठ सकता क्योंकि वह परम आप्त (विश्वसनीय) है । उत्तर मीमांसा (वेदान्त) में केवल परब्रह्म को ही पूर्ण नित्य माना जाता है । उसके अनुसार वेद भी ब्रह्मरूप ही हैं । परमात्मा ने ऋषियों की पश्यन्ती या मध्यमा वाणी में वेदों को प्रकट कर दिया और उन्होंने वैखरी द्वारा शिष्यों में उनका प्रचार किया । पुराणों ने परमात्मा और ऋषियों के बीच ब्रह्मा को जोड़ दिया है जिन्हें सर्वप्रथम ईश्वर से वेद प्राप्त हुए और उन्होंने ही इसे ऋषियों को दिया ।

३. परम्परागत विकास : इस तृतीय मत के अनुसार ऋषिगण ही वास्तव में मन्त्रों के रचयिता हैं किन्तु परमात्मा के अनुग्रह से ही उन्हें इनका ज्ञान प्राप्त हुआ । कुछ मन्त्रों को इस सन्दर्भ में प्रमाणरूप रखा जाता है :

यामृषयो मन्त्रकृतो मनीषिणः अन्वैच्छन् देवास्तपसा श्रमेण
तां दैवीं वाचं हविषा यजामहे सा नो दधातु सुकृतस्य लोके ।। तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.७ ।।

नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यः ।। तैत्तिरीय ब्राह्मण ४.१.१ ।।

इमे सर्वे वेदा निर्मिताः ।।

युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता स्वयम्भुवा ।।

इस मत के अनुसार वेदों का ज्ञान ईश्वर से ब्रह्मा‚ उनसे क्रमशः वशिष्ठ‚ शक्ति‚ पराशर और व्यास को प्राप्त हुआ । व्यास ने अपने पैल‚ सुमन्तु आदि शिष्यों के माध्यम से इसका विस्तार किया । सम्प्रति इसी मत को अधिक मान्यता प्राप्त है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
वैदिक साहित्य और संस्कृति का स्वरूप – प्रो. ओमप्रकाश पाण्डेय
संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास – पद्मभूषण श्री बलदेव उपाध्याय

क्रमशः.....


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