वैदिक वाङ्मय में ऋग्वेद सबसे प्राचीन और प्रधान वेद माना जाता है‚ जैसा कि छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है – ऋग्वेदं भगवोध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थम् (1.1.5) । तैत्तिरीय संहिता में तो यहाँ तक कहा गया है कि यज्ञ में जो कुछ यजुष् अथवा सामों के द्वारा किया जाता है वह शिथिल होता है किन्तु ऋचाओं द्वारा किया गया कार्य दृढ़ होता है – यद् वै यज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते शिथिलं तद् यद् ऋचा तद् दृढम् (तै.स. 6.5.10.3) ।
ऋग्वेद की शाखाएँ - अध्ययन के प्रसार के कारण कालान्तर में एक ही मन्त्रसंहिता की अनेक शाखाएँ हो गईं । एक ही वेद की सभी शाखाएँ वस्तुतः मूल वेद से अभिन्न ही हैं । इनमें मात्र कुछ मन्त्रों में न्यूनाधिक्य‚ पौर्वापर्य‚ पाठव्यतिक्रम‚ उच्चारणभेद तथा अनुष्ठानविधि में विविधता होती है‚ जैसा कि पं. सत्यव्रत सामश्रमी महोदय ने कहा है वेदशाखाभेदो
न मन्वाद्यध्यायभेदतुल्य:, प्रत्युत भिन्नकाललिखितानां
भिन्नदेशीयानामेकग्रन्थानामपि बहुतरादर्शपुस्तकानां यथाभवत्येव
पाठादिभेद: प्रायस्तथैव (वेदत्रयी परिचय:, पृ.42) ।
भगवान् पतंजलि के व्याकरणमहाभाष्यगत कथनानुसार ऋग्वेद की कदाचित् 21 शाखाएँ थीं - एकविंशतिधा बाह्वृच्यम् (पस्पशाह्निकम्) । इनमें चरणव्यूह में उल्लिखित ये पाँच शाखाएँ प्रमुख हैं - शाकल, बाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और मण्डूकायनी ।
सम्प्रति
ऋग्वेद की केवल शाकलशाखा ही उपलब्ध है । ऐसा माना जाता है कि अन्य शाखाओं में जो मन्त्र अधिक थे उन सभी को इस शाखा में समाहित कर दिया गया है‚ विशेषतः बाष्कल शाखा के मन्त्र इनमें ही समाहित कर दिये गये हैं । जिन मन्त्रों को सम्मिलित नहीं किया जा सकता था उन्हें खिलसूत्रों के अन्तर्गत रख दिया गया ।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार ऋग्वेद का अध्यापन महर्षि वेदव्यास ने अपने शिष्य पैल को कराया था और इन्हें ही ऋग्वेद के प्रचार–प्रसार का दायित्व भी सौंपा था – तत्रग्वेदधर: पैल: ।
ऋग्वेद का विभाजन दश मण्डलों अथवा आठ अष्टकों में किया गया है । इसमें कुल चौरासी अनुवाक‚ १०२८ सूक्त और प्रायः १०५८० मन्त्र हैं ।
क्रमशः .....